रुद्राभिषेक पूजा क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री

भक्तो के लिए भगवान शिव के अनंत नाम है उन्ही नामों में से एक प्रसिद्ध नाम है ‘रूद्र’। और भगवान शिव का रूद्र रूप का अभिषेक ही रुद्राभिषेक कहलाता है, इस पूजन में शिवलिंग को पवित्र स्नान कराकर पूजा और अर्चना की जाती है। यह हिंदू धर्म में पूजन के शक्तिशाली रूपों में से एक है और ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव अत्यंत उदार भगवान है और बहुत ही आसानी से भक्तो से प्रसन्न हो जाते हैं।

रुद्राभिषेक कब किया जाता है ?
विधान के अनुसार रुद्राभिषेक शिवरात्रि माह में किया जाता है। लेकिन, श्रावण (जुलाई-अगस्त) का कोई भी दिन रूद्राभिषेक के लिए आदर्श रूप से अनुकूल हैं। इस पूजा का समस्त सार यजुर्वेद में वर्णित श्री रुद्रम के पवित्र मंत्र का जाप और शिवलिंग को कई सामग्रियों के द्वारा पवित्र स्नान देना है जिसमें पंचमृत या फल शहद आदि शामिल हैं।

रुद्राभिषेक क्यों करवाना चाहिए ?
संसार का हर प्राणी सुख, समृद्दि, यश, धन, वैभव और मानसिक शांति चाहता है, लेकिन क्या ये सभी को प्राप्त हो पाते है, और ऐसा भी नहीं है की ये वास्तव में अप्राप्य हो, रुद्राभिषेक के द्वारा भगवान् शिव के भक्तों को सुख समृद्धि और शांति का आशीर्वाद मिलता और साथ ही कई जन्मों के किये गए जाने अनजाने पापों का प्रभाव भी नष्ट हो जाते हैं।

रुद्राभिषेक किसको करवाना चाहिए ?
जो भी प्राणी देविक, दैहिक और भौतिक तापों से पीड़ित है, जन्मकुंडली में शनि से पीड़ित है, अथवा जीवन में प्रगति के मार्ग पर चलते हुए व्यर्थ की समस्याओं और कठिनाइयों से पीड़ित है, उस व्यक्ति को इन सबसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए भगवन शिव की शरण में जाना चाहिए और इसका सबसे उत्तम और अनुकरणीय मार्ग है रुद्राभिषेक, धर्मग्रंथों का कहना है कि रुद्राभिषेक किसी भी शुभ कर्म को करने से पहले अवस्य करवाना चाहिए, जिससे समस्त दुष्ट एवं अनिष्टकारी शक्तिया भगवन शिव की कृपा से शांत हो जाए।
रुद्राभिषेक के प्रकार:

  • हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें
  • भगवान शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूध से अभिषेक करें
  • अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें
  • ग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें
  • किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें
  • तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए भगवान शिव का काले तिल से अभिषेक करें
  • संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु भगवान शिव का शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें
  • रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए भगवान शिव का घी व शहद से अभिषेक करें
  • आकर्षक व्यक्तित्व प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर हल्दी से अभिषेक करें

रुद्राभिषेक के समय उपस्थित लोगों को क्या करना चाहिए?
रुद्र अभिषेक का आयोजन सिद्ध पुजारियों या प्रकांड विद्वानों द्वारा वैदिक पध्दति से किया जाता है। इसमें शिवलिंग को उत्तर दिशा में रखते हैं। उपस्थित भक्त शिवलिंग के निकट पूर्व दिशा की ओर मुंख करके बैठते हैं। अभिषेक का प्रारम्भ गंगा जल से होता है और गंगा जल के साथ अन्य तरह के अभिषेक के बीच शिवलिंग को स्नान कराने के बाद अभिषेक के लिए आवश्यक सभी सामग्री शिवलिंग पर अर्पण की जाती है। अंत में, भगवान को विशेष व्यंजन अर्पित किए जाते हैं और आरती की जाती है। अभिषेक से एकत्रित गंगा जल को भक्तों पर छिड़का जाता है और पीने के लिए भी दिया जाता है, यह पवित्र जल सभी पाप और बीमारियां को दूर कर देता हैं। रूद्राभिषेक की संपूर्ण प्रक्रिया में उपस्थित भक्तो को मन ही मन या धीरे धीरे रूद्राम या ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप किया जाता है।

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आचार्य  निर्मल जी  शास्त्री

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वास्तु दोष क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री

वर्तमान समय में मनुष्य के जीवन में उसके घर, कार्यालय एवं व्यावसायिक प्रतिस्थान का उसके जीवन में विशेष महत्त्व है, लेकिन कई बार स्थान के आभाव या दिशाओ की जानकारी न होने के कारण कुछ निर्माण देखने में बहुत सुन्दर प्रतीत होते है लेकिन वह किसी किसी के लिए लाभकारी सिद्द नहीं होते है, इस प्रकार की परिस्थिति का सबसे बड़ा कारण निवास करने वाले व्यक्ति का ग्रहो का भवन के वास्तु के साथ सामंजस्य न हो पाना, मह्त्वपूर्ण कार्यो जैसे अनुष्ठान, भूमि पूजन, नींव खनन, कुआं खनन, शिलान्यास, द्वार स्थापन व गृह प्रवेश आदि अवसरों पर वास्तु देव पूजा का विधान है। घर के किसी भी भाग को तोड़ कर दोबारा बनाने से वास्तु भंग दोष लग जाता है।

कैसे जानेगे आपके स्थान पर वास्तुदोष है
आप अगर ऐसा महसूस कर रहे है की घर में अकारण ही क्लेश रहता है या फिर हर रोज कोई न कोई नुक्सान घर में होता रहता है, धन हानि व रोग आदि हो रहे हैं। किसी भी कार्य के सिरे चढ़ने में बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। घर में मन नहीं लगता एक नकारात्मकता की मौजूदगी महसूस होती है। हम इस प्रतीकात्मक शक्तिओ को माने अथवा न माने लेकिन वास्तु की हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है और यह हर रोज हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा होता है।

वास्तु पूजा या वास्तु शांति पूजन 
वस्तुतः हम जब की किसी नए भवन में प्रवेश करते है तो भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश अन्य सभी देवी-देवताओं की पूजा करते है, लेकिन वह भवन हमारे लिए विशेष फलदायी हो उसके लिए इनके साथ-साथ वास्तु की पूजा भी जाती हैं। वास्तु पूजन से वातावरण में फैली हुई सभी बाधाओं एवं नकारत्मक शक्तिओ को खत्म किया जा सकता है अन्यथा जीवन जीने में बाधा उतपन्न हो सकती हैं। वास्तु शांति पूजन हमे और हमारे परिवार को अनिष्ट, अनहोनी, नुकसान और दुर्भाग्य से भी बचाता है।

कैसे होती है वास्तु शांति पूजन
आप किसी भी विद्वान पंडित से इसकी सम्पूर्ण जानकारी ले सकते है, वास्तुशास्त्र में कई प्रकार की पूजन विधियां व उपाय वास्तु शांति के लिये बताये गये हैं लेकिन यह पूजन मुख्यत दो प्रकार से होते है पहली उपयुक्त पूजा की विधि द्वारा और दूसरी सांकेतिक पूजा की विधि द्वारा।

उपयुक्त पूजा – जैसा की नाम से ही ज्ञात हो रहा है, की उपयुक्त पूजा सर्वथा उपयुक्त होती है, इसके लिये स्वस्तिवचन, गणपति स्मरण, संकल्प, श्री गणपति पूजन, कलश स्थापन, पूजन, पुनःवचन, अभिषेक, शोडेशमातेर का पूजन, वसोधेरा पूजन, औशेया मंत्रजाप, नांन्देशराद, योग्ने पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, अग्ने सेथापन, नवग्रह स्थापन पूजन, वास्तु मंडला पूजल, स्थापन, ग्रह हवन, वास्तु देवता होम, पूर्णाहुति, त्रिसुत्रेवस्तेन, जलदुग्धारा, ध्वजा पताका स्थापन, गतिविधि, वास्तुपुरुष-प्रार्थना, दक्षिणासंकल्प, ब्राम्हण भोजन, उत्तर भोजन, अभिषेक, विसर्जन आदि प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।

सांकेतिक पूजन – सांकेतिक पूजा तब की जाती है जब समय या धन का आभाव के कारण आप उपयुक्त पूजा कराने में असमर्थ हो या किसी पूर्व निर्माण को तोड़ कर पुनर्निर्माण कराया जाता है, इस पूजन में कुछ प्रमुख क्रियाएं ही संपन्न की जाती हैं जिन्हें नजरअंदाज न किया जा सके।

लेकिन वास्तु शांति के स्थायी उपाय के लिये विद्वान पंडित जी से पूरे विधि विधान के साथ व्यक्ति को सदैव उपयुक्त पूजा ही करवानी चाहिये।

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पितृदोष क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री

जीवन और मृत्यु एक दूसरे के साथ साथ चलते है, मनुष्य के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु का समय स्थान, परिस्थित सब नियत कर दिया जाता है, फिर भी कई बार सांसारिक मोह में फंसे हुए व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसका भली प्रकार से अंतिम संस्कार संपन्न ना किया जाए, या जीवित अवस्था में उसकी कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तब भी उसकी मृत्यु के बाद उसकी आत्मा अपने घर और आगामी पीढ़ी के लोगों के बीच ही भटकती रहती है। ऐसे व्यक्तिओ के वंशजो को उनके मृत पूर्वजों की अतृप्त आत्मा ही कई बार भांति भांति के कष्ट देकर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए दबाव डालती है और यह कष्ट पितृदोष के रूप में उनके वंशजो की कुंडली में झलकता है।

इसके अतिरिक्त अगर किसी व्यक्ति अपने हाथों से जाने या अनजाने अपनी पिता की हत्या करता है, उन्हें दुख पहुंचाता या फिर अपने बुजुर्गों का असम्मान करता है तो अगले जन्म में उसे पितृदोष का कष्ट झेलना पड़ता है

पितृ दोष के लक्षण
वैसे तो इस दोष के लक्षण भी सामान्य होते है, जिनको आप चाहे तो तर्क के आधार कुछ और ही सिद्ध कर सकते है, परन्तु वास्तव में जिसकी कुंडली में यह दोष होता है, वह जनता है की वह अपने लिए कितना प्रयास कर रहा है, फिर भी सफलता न मिलने का उसे कारण समझ नहीं आ रहा, इन समस्याओ में कुछ प्रमुख समस्याएं इस प्रकार से है, जैसे विवाह ना हो पाने की समस्या, विवाहित जीवन में कलह रहना, परीक्षा में बार-बार असफल होना, नशे का आदि हो जाना, नौकरी का ना लगना या छूट जाना, गर्भपात या गर्भधारण की समस्या, बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाना या फिर मंदबुद्धि बच्चे का जन्म होना, निर्णय ना ले पाना, अत्याधिक क्रोधी होना

ज्योतिष विद्या में भगवान सूर्य को पिता का और मंगल को रक्त का कारक माना गया है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ये दो महत्वपूर्ण ग्रह पाप भाव में होते हैं तो व्यक्ति की कुंडली में पितृदोष है ऐसा माना जाता है

पितृदोष के कुछ ज्योतिषीय कारण भी हैं, जिस व्यक्ति के लग्न और पंचम भाव में सूर्य, मंगल एवं शनि का होना और अष्टम या द्वादश भाव में बृहस्पति और राहु स्थित हो तो पितृदोष के कारण संतान होने में बाधा आती है।

अष्टमेश या द्वादशेश का संबंध सूर्य या ब्रहस्पति से हो तो व्यक्ति पितृदोष से पीड़ित होता है, इसके अलावा सूर्य, चंद्र और लग्नेश का राहु से संबंध होना भी पितृदोष दिखाता है। अगर व्यक्ति की कुंडली में राहु और केतु का संबंध पंचमेश के भाव या भावेश से हो तो पितृदोष की वजह से संतान नहीं हो पाती।

पितृ दोष निवारण पूजन 
अगर आप यहाँ पर लिखी हुयी बातों को पढ़ रहे है तो आपको चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है, आप पंडित श्री रमा कांत जी को अपनी समस्या बताये और निराकरण प्राप्त करे, पंडित जी ने उज्जैन में एक लंबे समय से पितृ दोष शांति पूजन करवाकर अनेको पुत्रो को इस दोष से मुक्त करवा कर उनके पूर्वजो को प्रसन्न किया है।

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अर्क/कुंभ विवाह – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री

अर्क विवाह क्या है?

पुरुषों के विवाह में आ रहे विलम्ब या अन्य दोषो को दूर करने के लिए किसी कन्या से विवाह से पूर्व उस पुरुष का विवाह सूर्य पुत्री जो की अर्क वृक्ष के रूप में विद्धमान है से करवा कर विवाह में आ रहे समस्त प्रकार के दोषो से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, इसी विवाह पद्द्ति को अर्क विवाह कहा जाता है।

अर्क विवाह किन पुरुषों के होने चाहिए 
जिन पुरुषो की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र, सूर्य, सप्तमेष अथवा द्वादशेष, शनि से आक्रांत हों। अथवा मंगलदोष हो अर्थात वर की कुंडली में १,२,४,७,८,१२ इन भावों में मंगल हो तो यह वैवाहिक विलंब, बाधा एवं वैवाहिक सुखों में कमी करने वाला योग होता है, ऐसे पुरुषो के माता पिता या अन्य स्नेही सम्बन्धी जनको को उस वर का विवाह पूर्व अर्क विवाह करवाना चाहिए।

कुंभ विवाह
कन्या के विवाह में आ रहे विलम्ब या अन्य दोषो को दूर करने के लिए किसी पुरुष से विवाह से पूर्व उस कन्या का विवाह कुम्भ से करवाते है क्युकी कुम्ब में भगवान विष्णु विद्धमान है से करवा कर विवाह में आ रहे समस्त प्रकार के दोषो से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, इसी विवाह पद्द्ति को कुंभ विवाह कहा जाता है।

कुम्भ विवाह किन कन्याओ का होना चाहिए 
लड़की की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र, सूर्य, सप्तमेष अथवा द्वादशेष, शनि से आक्रांत हों। अथवा मंगलदोष हो अर्थात कन्या की कुंडली में १,२,४,७,८,१२ इन भावों में मंगल हो तो यह वैवाहिक विलंब, बाधा एवं वैवाहिक सुखों में कमी करने वाला योग होता है, ऐसी कन्याओ के माता पिता या अन्य स्नेही सम्बन्धी जनको को उस कन्या का विवाह पूर्व कुम्भ विवाह अवश्य करवाना चाहिए।

कुंभ एवं अर्क विवाह की आवश्यकता
मंगलदोष एक प्रमुख दोष माना जाता रहा है हमारे कुंडली के दोषों में, आजकलके शादी-ब्याह में इसकी प्रमुखता देखि जा रही है, ऐसा माना जाता रहा है की मांगलिक दोषयुक्त कुंडली का मिलान मांगलिक-दोषयुक्त कुंडली से ही बैठना चाहिए या ऐसे कहना चाहिए की मांगलिक वर की शादी मांगलिक वधु से होनी चाहिए पर ये कुछ मायनो में गलत है कई बार ऐसा करने से ये दोष दुगना हो जाता है जिसके फलस्वरूप वर-वधु का जीवन कष्टमय हो जाता है लेकिन अगर वर-वधु की आयु ३० वर्ष से अधिक हो या जिस स्थान पर वर या वधु का मंगल स्थित हो उसी स्थान पर दुसरे के कुंडली में शनि-राहु-केतु या सूर्य हो तो भी मंगल-दोष विचारनीय नहीं रह जाता अगर दूसरी कुंडली मंगल-दोषयुक्त न भी हो तो. या वर-वधु के गुण-मिलान में गुंणों की संख्या ३० से उपर आती है तो भी मंगल-दोष विचारनीय नहीं रह जाता, परन्तु अगर ये सब किसी की कुंडली में नहीं है तो नव दम्पति के सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए कन्या एवं वर का कुंभ एवं अर्क विवाह करवाना अनिवार्य सा बन जाता है।

वर-वधु दोनों की कुंडलियों में मांगलिक- दोष हो तो ?
वर-वधु दोनों की कुण्डलियाँ मांगलिक- दोषयुक्त हो पर किसी एक का मंगल उ़च्च का और दुसरे का नीच का हो तो भी विवाह नहीं होना चाहिए या दोनों की कुण्डलियाँ मांगलिक- दोषयुक्त न हो पर किसी एक का मंगल 29 डिग्री से ० डिग्री के बीच का हो तो भी मंगल-दोष बहुत हद्द तक प्रभावहीन हो जाता है अतः विवाह के समय इन बातों को विचार में रख के हम आने वाले भविष्य को सुखमय बना सकते है, इस विषय में समस्त जानकारी के लिए हमें सम्पर्क करें, हमे आपके सुखमय जीवन के अवश्य प्रयास करेंगे।

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कालसर्प पूजा – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री

कालसर्प योग क्या है ?

कालसर्प योग क्या है? और इस योग को कालसर्प योग क्यों कहा जाता है, शास्त्रों का अध्ययन करने पर हमने पाया राहू के अधिदेवता काल अर्थात यमराज है और प्रत्यधि देवता सर्प है, और जब कुंडली में बाकी के ग्रह राहु और केतु के मध्य आ जाते तो इस संयोग को ही कालसर्प योग कहते है।

वास्तव में प्राणी के जन्म लेते है उसकी कुंडली में ग्रहो का एक अद्भुत संयोग विद्धमान हो जाता है जो समय के अनुसार चलता जाता है, ऐसे ही ग्रहो की गति बदलते बदलते एक ऐसे क्रम में आ जाती है जिसमे सभी ग्रहों की स्थिति राहु और केतु के मध्य आ जाती है, इसमें राहु की तरफ सर्प का मुख होता है और केतु की तरफ सर्प की पूँछ होती है ऐसा माना जाता है, इस संयोग के कारण ही व्यक्ति की कुंडली में कालसर्प योग आ जाता है, वैसे काल सर्प का जो अर्थ ज्योतिष ने बताया है वो है ‘समय’ का सर्प के सामान वक्र होना, जिसकी कुण्डली में यह योग होता है उसके जीवन में काफी उतार चढ़ाव और संघर्ष आता है। इस योग को अशुभ माना गया है।

राहु और केतु ग्रह होते हुए भी ग्रह नहीं है, ऋग्वेद के अनुसार राहु केतु ग्रह नहीं हैं बल्कि असुर हैं, राहु केतु वास्तव में सर और धड़ का अलग अलग अस्तित्व है, जो की स्वर्भानु दैत्य के है, ब्रह्मा जी ने स्वरभानु को वरदान दिया जिससे उसे ग्रह मंडल में स्थान प्राप्त हुआ। स्वरभानु के राहु और केतु बनने की कथा सागर मंथन की कथा का ही एक भाग है।

कालसर्प योग कैसे बनता है ?
मान लो यदि कुंडली के पहले घर में राहू स्थित है और सातवे घर में केतु तो बाकी के सभी सात गृह पहले से सातवे अथवा सातवे से पहले घर के बीच होने चाहिए! यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है की सभी ग्रहों की डिग्री राहू और केतु की डिग्री के बीच स्थित होनी चाहिए, यदि कोई गृह की डिग्री राहू और केतु की डिग्री से बाहर आती है तो पूर्ण कालसर्प योग स्थापित नहीं होगा, इस स्थिति को आंशिक कालसर्प कहेंगे ! कुंडली में बनने वाला कालसर्प कितना दोष पूर्ण है यह राहू और केतु की अशुभता पर निर्भर करेगा !

क्यों है राहु केतु कष्टकारी ग्रह 
सामन्यतया ग्रह घड़ी की विपरीत दिशा में चलते हैं वहीं राहु केतु घड़ी की दिशा में भ्रमण करते हैं। राहु केतु में एक अन्य विशेषता यह है कि दोनों एक दूसरे से सातवें घर में स्थित रहते हैं. दोनों के बीच 180 डिग्री की दूरी बनी रहती है, जैसा की हम जानते है की राहु और केतु स्वर्भानु दैत्य के अंश से बने है और दैत्य सदैव प्राणियों के लिए कष्टकारी ही रहे है तो राहु और केतु कैसे शुभ हो सकते है।

कालसर्प दोष का निवारण 
हमारा वैदिक ज्योतिष शास्त्र ईश्वर की देन है, जो कुछ आपके प्रारब्ध में लिखा है उसे आप जप तप पूजा इत्यादि के द्वारा टाल भले ही न सके लेकिन उसका प्रभाव नगण्य करने तक की क्षमता रखता है, कालसर्प दोष है तो इसका निवारण भी है, भगवन भोलेनाथ के द्वार से कोई निराश नहीं जाता, जिसकी भी कुंडली में कालसर्प योग हो वह श्रावण मास में प्रतिदिन रूद्र-अभिषेक कराए एवं महामृत्युंजय मंत्र की एक माला रोज करें।

कालसर्प पूजा क्या है ?
वैदिक ज्योतिषशास्त्र के अनुसार राहु और केतु छाया ग्रह हैं जो सदैव एक दूसरे से सातवें भाव में होते हैं.जब अन्य ग्रह क्रमसः इन दोनों ग्रहों के बीच आ जाते हैं तब कालसर्प योग बनता है. कालसर्प योग (Kalsarp Yoga) में त्रिक भाव एवं द्वितीय और अष्टम में राहु की उपस्थिति होने पर व्यक्ति को विशेष परेशानियों का सामना करना होता है परंतु ज्योतिषीय उपचार से इन्हें अनुकूल बनाया जा सकता है, उज्जैन विश्वभर में तिलभर ज्यादा होने की विशेष उपलब्धि और ख्याति प्राप्त है, और साथ ही यह महाकाल की नगरी है इसलिए यहाँ पर सच्चे मन से की गयी पूजा विशेष फलदायी होने के साथ साथ करने वाले और कराने वाले पर भगवान शिव के परिवार की कृपा और अन्य देवी-देवताओं का आशीर्वाद भी प्राप्त होता है, ऐसा ग्रंथों में उल्लेख है।

कालसर्प पूजा किसको करवाबी चाहिए
जिन प्राणियों की कुंडली में ७ ग्रहो यथा सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि कुछ इस प्रकार से जमे हो की उनकी स्थिति राहू और केतु के बीच आ जाती है तो उस मनुस्य कुंडली में कालसर्प दोष का निर्माण होता है, और ऐसे मनुष्य को कालसर्प पूजा करवानी चाहिए।

कालसर्प पूजा क्यों करवानी चाहिए ?
जिन व्यक्तियों के जीवन में निरंतर संघर्ध बना रहता हो, कठिन परिश्रम करने पर भी आशातीत सफलता न मिल रही हो, मन में उथल – पुथल रहती हो, जीवन भर घर, बहार, काम काज, स्वास्थ्य, परिवार, नोकरी, व्यवसाय आदि की परेशानियों से सामना करना पड़ता है ! बैठे बिठाये बिना किसी मतलब की मुसीबते जीवन भर परेशान करती है, इसका कारण आपकी कुंडली का कालसर्प योग हो सकता है, इसलिए अपनी कुंडली किसी विद्वान ब्राह्मण को अवश्य दिखाए क्युकी कुंडली में बारह प्रकार के काल सर्प पाए जाते है, यह बारह प्रकार राहू और केतु की कुंडली के बारह घरों की अलग अलग स्थिति पर आधारित होती है, अब आपकी कुंडली में कैसा कालसर्प है ये विशुध्द पंडित जी बता सकते है, इसलिए अविलम्ब संपर्क करिये पंडित रमा कांत चौबे जी से और कुंडली के सभी प्रकार के कालसर्प योग का निदान एवं निराकरण कराये।

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