श्री राम जनार्दन मंदिर – Ujjain Poojan पण्डित निर्मल जी शास्त्री
इस मंदिर में 11वीं शताब्दी में बनी शेषशायी विष्णु की तथा 10वीं शताब्दी में निर्मित गोवर्धनधारी कृष्ण की प्रतिमाएं भी लगी हैं। यहां पर श्रीराम, लक्ष्मण एवं जानकीजी की प्रतिमाएं बनवासी वेशभूषा में उपस्थित हैं।
हरसिद्धि मंदिर – उज्जैन – Ujjain Poojan पण्डित निर्मल जी शास्त्री
श्री हरसिद्धिदेवी का मंदिर
उज्जैन के प्राचीन और पवित्र उपासना स्थलों में श्री हरसिद्धिदेवी देवी के मंदिर का विशेष स्थान है। स्कंद पुराण में वर्णन है कि शिवजी के कहने पर मां भगवती ने दुष्ट दानवों का वध किया था अत: तब से ही उनका नाम हरसिद्धि नाम से प्रसिद्ध हुआ। शिवपुराण के अनुसार सती की कोहनी यहीं पर गिरी थी अतएव तांत्रिक ग्रंथों में इसे सिद्ध शक्तिपीठ की संज्ञा दी गई है। यह देवी, सम्राट विक्रमादित्य की आराध्य कुलदेवी भी कही जाती है।
कहते हैं कि सम्राट विक्रमादित्य ने यहां पर घोर तपस्या की थी तथा लगातार 11 बार अपना सिर काटकर इन्हें समर्पित किया था और ग्यारह बार सिर पुन: उनके शरीर से जुड़ गया था। उपरोक्त तथ्यों के कारण इस मंदिर का अपना विशिष्ट महत्व है।
इस मंदिर के गर्भगृह में श्रीयंत्र प्रतिष्ठित है। ऊपर श्री अन्नपूर्णा तथा उनके आसन के नीचे कालिका, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती आदि देवियों की प्रतिमाएं हैं। रुद्रसागर तालाब के निकट इस मंदिर के परकोटे में चारों ओर द्वार हैं। इस मंदिर के प्रांगण में दो विशाल दीप स्तंभ हैं जिन पर नवरात्रि में दीपक जलाए जाते हैं। इसके कोने पर एक अतिप्राचीन बावड़ी भी है। इस मंदिर के पीछे संतोषी माता एवं अगस्त्येश्वर महादेव का मंदिर है। स्कंदपुराण में उल्लेख है कि इस मंदिर के दर्शन से अपार पुण्य प्राप्त होता है।
हरसिद्धि मंदिर
प्राचीन काल में चण्ड, प्रचण्ड नामक दो राक्षस थे , जिन्होंने अपने बल – पराक्रम से सारे संसार को कंपा दिया था। एक बार ये दोनों कैलास पर गए . जब ये दोनों अंदर जाने लगे तो द्वार पर नंदीगण ने इन्हे रोका, जिससे क्रोधित होकर इन्होने नंदीगण को घायल कर डाला। जब भगवान् शंकर को यह बात मालुम हुई तो उन्होंने चण्डी का समरण किया . देवी ने तुरंत प्रकट होकर शिवजी की आज्ञा के अनुसार उन राक्षस का वध कर दिया। शिवजी ने देवी की विजय पर प्रसन्न होकर कहा कि अब से संसार में तुम्हारा नाम ‘हरसिद्धि’ प्रसिद्ध होगा और लोग इसी नाम से तुम्हारी पूजा करेंगे। तब से माता हरसिद्धि उज्जैन के महाकालवन में ही विराजती है
कहते है सम्राट विक्रमादित्य कि आराध्या देवी यह श्री हरसिद्धि ही थी। वह इन्ही की कृपा से निर्विघ्न शासनकार्य चलाया करते थे। महाराज माताजी के इतने बड़े भक्त थे कि वह हर बारहवे साल सवयं अपने हाथो अपना सिर उनके चरणो पर चढ़ाया करते थे और माता की कृपा से उनका सिर फिर पैदा हो जाता था। इस तरह राजा ने ग्यारह बार पूजा की और बार -२ जीवित हो गए। बारहवी बार जब उन्हों ने पूजा कि तो सिर वापस नहीं हुआ और इस तरह उनका जीवन समाप्त हो गया। आज भी मंदिर के एक कोने में ग्यारह सिन्दूर लगे हुए रुण्ड रखे हुए है। लोगो का कहना है कि ये विक्रम के कटे हुए मुण्ड है। किन्तु इस विषय में कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं पाया जाता। अब कहिये जय माता दी जी
तू ही
दोहा – चिंता बिघ्नबिनासिनी कमलासनी सक्त बीसहथी हँसबाहिनी माता देहु सुमत्त भुजंगप्रयात नमो आद अनाद तुंही भवानी।
तुंही योगमाया तुंही बाकबानी तुंही धरन आकास बिभो पसारे। तुंही मोहमाया बिसे सूल धारे तुंही चार बेद खंट भाप चिन्ही।
तुंही ज्ञान बिज्ञान में सर्ब भिन्हि तुंही बेद बिद्या चहुदे प्रकासी। कलामंड चौबीसकी रुपरासी तुंही बिसवकर्ता तुंही बिसवहर्ता।
तुंही स्थावर जंगममें प्रवरता दुर्गा देबि बन्दे सदा देव रायं। जपे आप जालंधरी तो सहाये
दोहा –
करै बिनती बंदिजन सन्मुख रहेसुजान प्रगट अंबिका मुख कहै मांग चंद बरदान
हरसिद्धि मंदिर उज्जैन के मंदिरों के शहर में एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर देवी अन्नपूर्णा को समर्पित है जो गहरे सिंदूरी रंग में रंगी है। देवी अन्नपूर्णा की मूर्ति देवी महालक्ष्मी और देवी सरस्वती की मूर्तियों के बीच विराजमान है। श्रीयंत्र शक्ति की शक्ति का प्रतीक है और श्रीयंत्र भी इस मंदिर में प्रतिष्ठित है। इस जगह का पुराणों में बहुत महत्व है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शिव सती के शरीर को ले जा रहे थे, तब उसकी कोहनी इस जगह पर गिरी थी। इस मंदिर का पुनर्निर्माण मराठों के शासनकाल में किया गया था, अतः मराठी कला की विशेषता दीपकों से सजे हुए दो खंभों पर दिखाई देती है। मंदिर परिसर में एक प्राचीन कुँआ है तथा मंदिर के शीर्ष पर एक सुंदर कलात्मक स्तंभ है। इस
ग्रहण दोष क्या होता ?करें निवारण – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
आपने जन्मकुंडली में योग और दोष दोनों के बारे में जरूर सुना होगा। ज्योतिष्य योग और ज्योतिष्य दोष ये दोनों अलग अलग प्रकार की ग्रहों की स्थितिया है जो आपस में उनके कुंडली में मिलने से उनके संयोग बनती है, जिसे हम ज्योतिष्य भाषा में ग्रहों की युति कह कर सम्बोधित करते है। जो कई प्रकार के शुभ और अशुभ योगो का निर्माण करती है। उन शुभ योगो में कुछ राजयोग होते है। हर व्यक्ति अपनी कुंडली में राजयोग को खोजना चाहता है जोकि ग्रहो के संयोग से बनने वाली एक सुखद अवस्था है। ईश्वर की कृपया से जिनकी कुंडली में यह सुन्दर राजयोग होते है वह अपनी ज़िंदगी अच्छी प्रकार से व्यतीत कर पाने में समर्थ होते है। लेकिन इसके विपरीत कुछ जातक ऐसे भी होते है जिनकी कुंडली में ग्रह कुछ दुषयोगो का निर्माण करते है। जिनका जातक को यथा सम्भव उपाय करवा लेना चाहिये। आज हम यहाँ ग्रहों के माध्यमो से बनने वाले कुछ दुषयोगो के बारे में बात करेंगे।
ग्रहदोष शांति पूजा का महत्व यह पूजा किसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह जीवन की सभी समस्याओं से व्यक्ति को बाहर लाता है। सुख और समृद्धि के सभी प्रकार के किसी भी बाधाओं और रास्ते में बाधाओं के बिना हासिल किया जा रहा है। ग्रहदोष शांति पूजा के लाभ इस पूजा के विभिन्न लाभ कर रहे हैं, क्योंकि यह व्यक्ति मानसिक गड़बड़ी, स्वास्थ्य समस्याओं, साथी के साथ इस समस्या से छुटकारा पाने में मदद करता है, बच्चे की अवधारणा। पेशेवर जीवन में सफलता बहुत हद तक और धन के लिए सुधार हो जाता है और भौतिकवादी खुशी जीवन भर रखा है।
ग्रहण दोष के विभिन्न कारण –
चंद्र ग्रहण दोष के कई कारण होते हैं और हर व्यक्ति के जीवन पर उसका प्रभाव भी अलग तरीके से पड़ता है। चंद्र ग्रहण दोष का सबसे अधिक प्रभाव, उत्तरा भादपत्र नक्षत्र में पड़ता है। जो जातक, मीन राशि का होता है और उसकी कुंडली में चंद्र की युति राहु या केतू के साथ स्थित हो जाएं, ग्रहण दोष के कारण स्वत: बन जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर इसके प्रभाव अधिक गंभीर होते हैं।
चंद्र ग्रहण दोष के परिणाम(प्रभाव) –
व्यक्ति परेशान रहता है, दूसरों पर दोष लगाता रहता है, उसके मां के सुख में भारी कमी आ जाती है। उसमें सम्मान में कमी अाती है। हर प्रकार से उस व्यक्ति पर भारी समस्याएं आ जाती है जिनके पीछे सिर्फ वही दोषी होता है। साथ ही स्वास्थ्य सम्बंधी दिक्कतें भी आती हैं। सूर्य और चंद्र ग्रहदोष एक व्यक्ति के जीवन में अपने स्वयं के बुरे प्रभावों की है। सूर्य के कारण दोष व्यक्तिगत सफलता, शोहरत और नाम है जो समग्र विकास में पड़ाव परिणाम प्राप्त करने में बाधाओं का सामना। एक औरत बार-बार गर्भपात, बच्चे और दोषपूर्ण पुत्रयोग की अवधारणा में समस्या की तरह बच्चे से संबंधित समस्या का सामना करना पड़ता। स्वास्थ्य समस्याओं को भी सूर्य दोष के कारण प्रमुख हैं। चंद्र दोष अपने स्वयं के बुरे प्रभावों के रूप में यह व्यक्ति अनावश्यक तनाव का एक बहुत कुछ देता है।
इस दोष के कारण वहाँ विश्वास, भावनात्मक अपरिपक्वता, लापरवाही, याददाश्त में कमी, असंवेदनशीलता में एक नुकसान है। स्वास्थ्य छाती, फेफड़े, सांस लेने और मानसिक अवसाद से संबंधित समस्याओं को बहुत हद तक अनुकूल हैं। आत्म विनाशकारी प्रकृति भी हो जाता है एक व्यक्ति के मन में उठता है और आत्महत्या करने की कोशिश करता है।यदि आप हमेशा कश्मकश में रहते हैं, इधर-उधर की सोचते रहते हैं, निर्णय लेने में कमजोर हैं, भावुक एवं संवेदनशील हैं, अन्तर्मुखी हैं, शेखी बघारने वाले व्यक्ति हैं, नींद पूरी नही आती है, सीधे आप सो नहीं सकते हैं अर्थात हमेशा करवट बदलकर सोएंगे अथवा उल्टे सोते हैं, भयभीत रहते हैं तो निश्चित रुप से आपकी कुंडती में चन्द्रमा कमजोर होगा |समय पर इस कमजोर चंद्रमा अर्थात प्रतिकूल प्रभाव को कम करने का उपाय करना चाहिए अन्यथा जीवन भर आप आत्म विश्वास की कमी से ग्रस्त रहेंगे.
जिन व्यक्तियों का चन्द्रमा क्षीण होकर अष्टम भाव में और चतुर्थ तथा चंद्र पर राहु का प्रभाव हो, अन्य शुभ प्रभाव न हो तो वे मिरगी रोग का शिकार होते हैं.
जिन लोगों का चन्द्रमा छठे आठवें आदि भावों में राहु दृष्ट न हो, वैसे पाप दृष्ट हो तो उनको रक्त चाप आदि होता है.
चंद्र दोष निवारण —-
ज्योतिषाचार्य पंडित दयानंद शास्त्री ने बताया की चंद्र दोष के उपाय जो शास्त्रों में उल्लेखित हैं उनमें सोमवार का व्रत करना, माता की सेवा करना, शिव की आराधना करना, मोती धारण करना, दो मोती या दो चांदी का टुकड़ा लेकर एक टुकड़ा पानी में बहा देना तथा दूसरे को अपने पास रखना है. कुंडली के छठवें भाव में चंद्र हो तो दूध या पानी का दान करना मना है. यदि चंद्र बारहवां हो तो धर्मात्मा या साधु को भोजन न कराएं और ना ही दूध पिलाएं. सोमवार को सफेद वास्तु जैसे दही, चीनी, चावल, सफेद वस्त्र, 1 जोड़ा जनेऊ, दक्षिणा के साथ दान करना और ॐ सोम सोमाय नमः का १०८ बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है.
सम्पर्क सूत्र
आचार्य निर्मल जी शास्त्री
90090-78032 , 87708-86923
मंगल भात पूजा क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
मंगल मेष एवं वृश्चिक राशि के स्वामी हैं, इसलिए जिन व्यक्तिओ बहुत क्रोध आता है या मन ज्यादा अशांत रहता है उसका कारण मंगल ग्रह की उग्रता माना जाता और यह मंगल भात पूजा कुंडली में विद्धमान मंगल ग्रह की उग्रता को कम करने के लिए की जाती है, यह पूजा उज्जैन के मंगलनाथ मंदिर में नित्य होती है, जिसका पुण्य लाभ समस्त भक्तजन प्राप्त करते है।
मंगल भात पूजा किसके द्वारा करवाई जानी चाहिए ?
मंगल भात पूजा पूरी तरह से आपके जीवन से जुडी हुयी है इसलिए इस पूजा को विशिस्ट, सात्विक और विद्वान ब्राह्मण द्वारा गंभीरता पूर्वक करवानी चाहिए, पंडित श्री रमाकांत चौबे जी को इस पूजा का महत्त्व और विधि भली भांति से ज्ञात है और अभी तक इनके द्वारा की गयी पूजा गयी पूजा भगवान शिव की कृपा से सदैव सफल हुयी है।
मंगल भात पूजा क्यों करवानी चाहिए
कुछ व्यक्ति ऐसे होते है जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है उसी को ज्योतिष की भाषा में मंगल दोष कहते है, मंगल दोष कुंडली के किसी भी घर में स्थित अशुभ मंगल के द्वारा बनाए जाने वाले दोष को कहते हैं, जो कुंडली में अपनी स्थिति और बल के चलते जातक के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समस्याएं उत्पन्न कर सकता है, तो वे अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए मंगलनाथ मंदिर में पूजा-पाठ अवश्य करवाए, जैसा की उज्जैन को पुराणों में मंगल की जननी कहा जाता है इस लिए मंगल दोष को निवारण के लिए मंगल भात पूजा को उज्जैन में ही करवाने से अभीस्ट पुण्य एवं फल प्राप्त होता है.
मंगल भात पूजा किसको करवानी चाहिए ?
वैदिक ज्योतिष के अनुसार यदि किसी जातक के जन्म चक्र के पहले, चौथे, सातवें, आठवें और बारहवें घर में मंगल हो तो ऐसी स्थिति में पैदा हुआ जातक मांगलिक कहा जाता है अथवा इसी को मंगल दोष भी कहते है. यह स्थिति विवाह के लिए अत्यंत अशुभ मानी जाती है, ज्योतिष शास्त्र की दृष्टि में एक मांगलिक को दूसरे मांगलिक से ही विवाह करना चाहिए. अर्थात यदि वर और वधु दोनों ही मांगलिक होते है तो दोनों के मंगल दोष एक दूसरे से के योग से समाप्त हो जाते है. किन्तु अगर ऐसा किसी कारण से ज्ञात नहीं हो पाता है, और किसी एक की कुंडली में मंगल दोष हो तो मंगल भात पूजा अवस्य करवा लेनी चाहिए. मंगल दोष एक ऐसी विचित्र स्थिति है, जो जिस किसी भी जातक की कुंडली में बन जाये तो उसे बड़ी ही अजीबोगरीब परिस्थिति का सामना करना पड़ता है जैसे संबंधो में तनाव व बिखराव, घर में कोई अनहोनी व अप्रिय घटना, कार्य में बेवजह बाधा और असुविधा तथा किसी भी प्रकार की क्षति और दंपत्ति की असामायिक मृत्यु का कारण मांगलिक दोष को माना जाता है. मूल रूप से मंगल की प्रकृति के अनुसार ऐसा ग्रह योग हानिकारक प्रभाव दिखाता है, आपको वैदिक पूजा-प्रक्रिया के द्वारा इसकी भीषणता को नियंत्रित करने के लिए उज्जैन के मंगलनाथ मंदिर में यह पूजा करवानी चाहिए।
मंगल भात पूजा की कथा
शास्त्रों में मंगल को भगवान शिव के शरीर से क्रोध के कारण निकले पशीने से उत्पन्न माना जाता है, इसकी कथा इस प्रकार से है, भगवान शिव वरदान देने में बहुत ही उदार है, जिसने जो माँगा उसे वो दे दिया लेकिन जब कोई उनके दिए वरदान का दुरूपयोग करता है जो प्राणिओ के कल्याण के भगवान् शिव स्वयं उसका संघार भी करते है, स्कन्ध पुराण के अनुसार उज्जैन नगरी में अंधकासुर नामक दैत्य ने भगवान् शिव की अडिग तपस्या की और ये वरदान प्राप्त किया कि मेरा रक्त भूमि पर गिरे तो मेरे जैसे ही दैत्य उत्पन्न हों जाए। भगवान शिव तो है ही अवढरदानी दे दिया वरदान, परन्तु इस वरदान से अंधकासुर ने पृथ्वी पर त्राहि-त्राहि मचा दी..सभी देवता, ऋषियों, मुनियो और मनुष्यो का वध करना शुरू कर दिया…सभी देवगढ़, ऋषि-मुनि एवं मनुष्य भगवान् शिव के पास गए और सभी ने ये प्रार्थना की- आप ने अंधकासुर को जो वरदान दिया है, उसका निवारण करे, इसके बाद भगवान शिव जी ने स्वयं अंधकासुर से युद्ध करने और उसका वध का निर्णय लिया । भगवान् शिव और अंधकासुर के बीच आकाश में भीषण युद्ध कई वर्षों तक चला ।
युद्ध करते समय भगवान् शिव के ललाट से पसीने कि एक बून्द भूमि के गर्भ पर गिरी, वह बून्द पृथ्वी पर मंगलनाथ की भूमि पर गिरी जिससे भूमि के गर्भ से शिव पिंडी की उत्पत्ति हुई और इसी को बाद में मंगलनाथ के नाम से प्रसिद्दि प्राप्त हुयी। युद्ध के समय भगवान् शिव का त्रिसूल अंधकासुर को लगा, तब जो रक्त की बुँदे आकाश में से भूमि के गर्भ पर शिव पुत्र भगवान् मंगल पर गिरने लगी, तो भगवान् मंगल अंगार स्वरूप के हो गए । अंगार स्वरूप के होने से रक्त की बूँदें भस्म हो गयीं और भगवान् शिव के द्वारा अंधकासुर का वध हो गया । भगवान् शिव मंगलनाथ से प्रसन्न होकर २१ विभागों के अधिपति एवं नवग्रहों में से एक गृह की उपाधि दी ।
शिव पुत्र मंगल उग्र अंगारक स्वभाव के हो गए.. तब ब्रम्हाजी, ऋषियों, मुनियो, देवताओ एवं मनुष्यों ने सर्व प्रथम मंगल की उग्रता की शांति के लिए दही और भात का लेपन किया, दही और भात दोनो ही पदार्थ ठन्डे होते है, जिससे मंगल ग्रह की उग्रता की शांति होती हैं। इसी कारण जिन प्राणिओ की कुंडली में मंगल ग्रह अतिउग्र होता है उनको मंगल भात पूजा करवानी चाहिए, इस पूजा का उज्जैन में करवाने के कारण यह अत्यंत लाभदायी और शुभ फलदायी होती है। इसी कारण मंगल गृह को अंगारक एवं कुजनाम के नाम से भी जाने जाते है ।
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आचार्य निर्मल जी शास्त्री
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महामृत्युंजय जाप के जीवन में क्या लाभ है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
महामृत्युंजय मंत्र वेदों में सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद का एक श्लोक है जो की भगवान शिव के मृत्युंजय स्वरुप को समर्पित है, यह मन्त्र तीन स्वरूपों में है, (1) लघु मृत्युंजय मंत्र (2) महा मृत्युंजय मंत्र एवं (3) संपुटयुक्त महा मृत्युंजय मंत्र, महामृत्युंजय मंत्र जप सुबह १२ बजे से पहले होना चाहिए,क्योंकि ऐसी प्राचीन मान्यता है की दोपहर १२ बजे के बाद महामृत्युंजय मंत्र के जप का उतना फल नहीं प्राप्त होता है जितना की करने वाले को प्राप्त होना चाहिए।
महा मृत्युंजय मंत्र के प्रत्येक अक्षर का अर्थ
!!ॐ त्र्यम्बक यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धन्म। उर्वारुकमिव बन्धनामृत्येर्मुक्षीय मामृतात् !!
त्रयंबकम = त्रि-नेत्रों वाला यजामहे = हम पूजते हैं, सम्मान करते हैं, हमारे श्रद्देय सुगंधिम= मीठी महक वाला, सुगंधित पुष्टि = एक सुपोषित स्थिति,फलने-फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता वर्धनम = वह जो पोषण करता है, शक्ति देता है,स्वास्थ्य, धन, सुख में वृद्धिकारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है, और स्वास्थ्य प्रदान करता है, एक अच्छा माली उर्वारुकम= ककड़ी इव= जैसे, इस तरह बंधना= तना मृत्युर = मृत्यु से मुक्षिया = हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें मा= न अमृतात= अमरता, मोक्ष
महा मृत्युंजय मंत्र का अर्थ
समस्त संसार के पालनहार, तीन नेत्र वाले शिव की हम अराधना करते हैं। विश्व में सुरभि फैलाने वाले भगवान शिव मृत्यु न कि मोक्ष से हमें मुक्ति दिलाएं।|| इस मंत्र का विस्तृत रूप से अर्थ ||हम भगवान शंकर की पूजा करते हैं, जिनके तीन नेत्र हैं, जो प्रत्येक श्वास में जीवन शक्ति का संचार करते हैं, जो सम्पूर्ण जगत का पालन-पोषण अपनी शक्ति से कर रहे हैं,उनसे हमारी प्रार्थना है कि वे हमें मृत्यु के बंधनों से मुक्त कर दें, जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो जाए.जिस प्रकार एक ककड़ी अपनी बेल में पक जाने के उपरांत उस बेल-रूपी संसार के बंधन से मुक्त हो जाती है, उसी प्रकार हम भी इस संसार-रूपी बेल में पक जाने के उपरांत जन्म-मृत्यु के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त हो जाएं, तथा आपके चरणों की अमृतधारा का पान करते हुए शरीर को त्यागकर आप ही में लीन हो जाएं.
महा मृत्युंजय मंत्र जप विधान
महा मृत्युंजय मंत्र का पुरश्चरण सवा लाख का है और लघु मृत्युंजय मंत्र का 11 लाख है. महा मृत्युंजय मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला पर सोमवार से शुरू किया जाता है. महा मृत्युंजय मंत्र को अपने घर पर महामृत्युंजय यन्त्र या किसी भी शिवलिंग का पूजन कर शुरू किया जा सकता या फिर सुबह के समय किसी शिवमंदिर में जाकर शिवलिंग का पूजन करें और फिर घर आकर घी का दीपक जलाकर महा मृत्युंजय मंत्र का ११ माला जप कम से कम ९० दिन तक रोज करें या एक लाख पूरा होने तक जप करते रहें. अंत में हवन हो सके तो श्रेष्ठ अन्यथा २५ हजार जप और करें. इतना जप पूर्ण मनोयोग से शुद्ध उच्चरण के साथ निरंतर नहीं कर सकते इसलिए इस महामंत्र को आप विशुद्ध अंतःकरण वाले ब्राह्मण के द्वारा करवा कर समान पुण्य लाभ प्राप्त कर सकते है।
महा मृत्युंजय मंत्र जप किसे करवाना चाहिए
जिन प्राणियों को ग्रहबाधा, ग्रहपीड़ा, रोग, जमीन-जायदाद का विवाद, हानि की सम्भावना या धन-हानि हो रही हो, वर-वधू के मेलापक दोष, घर में कलह, सजा का भय या सजा होने पर, कोई धार्मिक अपराध होने पर और अपने समस्त पापों के नाश के लिए महामृत्युंजय या लघु मृत्युंजय मंत्र का जाप किया या कराया जा सकता है.
महामृत्युंजय मंत्र का क्या लाभ है ?
महामृत्युंजय मंत्र शोक, मृत्यु भय, अनिश्चता, रोग, दोष का प्रभाव कम करने में, पापों का सर्वनाश करने की क्षमता रखता है.महामृत्युंजय मंत्र का जाप करना या करवाना सबके लिए और सदैव मंगलकारी है,परन्तु ज्यादातर तो यही देखने में आता है कि परिवार में किसी को असाध्य रोग होने पर अथवा जब किसी बड़ी बीमारी से उसके बचने की सम्भावना बहुत कम होती है, तब लोग इस मंत्र का जप अनुष्ठान कराते हैं.
महामृत्युंजय मंत्र का जाप के प्रति गलत धारणा
बहुत से पंडित महामृत्युंजय मंत्र के बारे में सिर्फ ये बताते है की इसके जाप से रोगी स्वस्थ हो जायेगा, लेकिन वास्तव में ये अर्ध सत्य है, जिससे महामृत्युंजय मंत्र का जाप अनुष्ठान होने के बाद यदि रोगी जीवित नहीं बचता है तो लोग निराश होकर पछताने लगे हैं कि बेकार ही इतना खर्च किया. परन्तु वास्तव में इस मंत्र का मूल अर्थ ही यही है कि हे महादेव..या तो रोगी को ठीक कर दो या तो फिर उसे जीवन मरण के बंधनों से मुक्त कर दो. अत: रोगी के ठीक न होने पर भी पछताना या कोसना नहीं चाहिए, जगत के स्वामी बाबा भोलेनाथ और माता पार्वती आप सबकी मनोकामना पूर्ण करें.
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रुद्राभिषेक पूजा क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
भक्तो के लिए भगवान शिव के अनंत नाम है उन्ही नामों में से एक प्रसिद्ध नाम है ‘रूद्र’। और भगवान शिव का रूद्र रूप का अभिषेक ही रुद्राभिषेक कहलाता है, इस पूजन में शिवलिंग को पवित्र स्नान कराकर पूजा और अर्चना की जाती है। यह हिंदू धर्म में पूजन के शक्तिशाली रूपों में से एक है और ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव अत्यंत उदार भगवान है और बहुत ही आसानी से भक्तो से प्रसन्न हो जाते हैं।
रुद्राभिषेक कब किया जाता है ?
विधान के अनुसार रुद्राभिषेक शिवरात्रि माह में किया जाता है। लेकिन, श्रावण (जुलाई-अगस्त) का कोई भी दिन रूद्राभिषेक के लिए आदर्श रूप से अनुकूल हैं। इस पूजा का समस्त सार यजुर्वेद में वर्णित श्री रुद्रम के पवित्र मंत्र का जाप और शिवलिंग को कई सामग्रियों के द्वारा पवित्र स्नान देना है जिसमें पंचमृत या फल शहद आदि शामिल हैं।
रुद्राभिषेक क्यों करवाना चाहिए ?
संसार का हर प्राणी सुख, समृद्दि, यश, धन, वैभव और मानसिक शांति चाहता है, लेकिन क्या ये सभी को प्राप्त हो पाते है, और ऐसा भी नहीं है की ये वास्तव में अप्राप्य हो, रुद्राभिषेक के द्वारा भगवान् शिव के भक्तों को सुख समृद्धि और शांति का आशीर्वाद मिलता और साथ ही कई जन्मों के किये गए जाने अनजाने पापों का प्रभाव भी नष्ट हो जाते हैं।
रुद्राभिषेक किसको करवाना चाहिए ?
जो भी प्राणी देविक, दैहिक और भौतिक तापों से पीड़ित है, जन्मकुंडली में शनि से पीड़ित है, अथवा जीवन में प्रगति के मार्ग पर चलते हुए व्यर्थ की समस्याओं और कठिनाइयों से पीड़ित है, उस व्यक्ति को इन सबसे मुक्ति प्राप्त करने के लिए भगवन शिव की शरण में जाना चाहिए और इसका सबसे उत्तम और अनुकरणीय मार्ग है रुद्राभिषेक, धर्मग्रंथों का कहना है कि रुद्राभिषेक किसी भी शुभ कर्म को करने से पहले अवस्य करवाना चाहिए, जिससे समस्त दुष्ट एवं अनिष्टकारी शक्तिया भगवन शिव की कृपा से शांत हो जाए।
रुद्राभिषेक के प्रकार:
- हर तरह के दुखों से छुटकारा पाने के लिए भगवान शिव का जल से अभिषेक करें
- भगवान शिव को प्रसन्न कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए दूध से अभिषेक करें
- अखंड धन लाभ व हर तरह के कर्ज से मुक्ति के लिए भगवान शिव का फलों के रस से अभिषेक करें
- ग्रहबाधा नाश हेतु भगवान शिव का सरसों के तेल से अभिषेक करें
- किसी भी शुभ कार्य के आरंभ होने व कार्य में उन्नति के लिए भगवान शिव का चने की दाल से अभिषेक करें
- तंत्र बाधा नाश हेतु व बुरी नजर से बचाव के लिए भगवान शिव का काले तिल से अभिषेक करें
- संतान प्राप्ति व पारिवारिक सुख-शांति हेतु भगवान शिव का शहद मिश्रित गंगा जल से अभिषेक करें
- रोगों के नाश व लम्बी आयु के लिए भगवान शिव का घी व शहद से अभिषेक करें
- आकर्षक व्यक्तित्व प्राप्ति हेतु भगवान शिव का कुमकुम केसर हल्दी से अभिषेक करें
रुद्राभिषेक के समय उपस्थित लोगों को क्या करना चाहिए?
रुद्र अभिषेक का आयोजन सिद्ध पुजारियों या प्रकांड विद्वानों द्वारा वैदिक पध्दति से किया जाता है। इसमें शिवलिंग को उत्तर दिशा में रखते हैं। उपस्थित भक्त शिवलिंग के निकट पूर्व दिशा की ओर मुंख करके बैठते हैं। अभिषेक का प्रारम्भ गंगा जल से होता है और गंगा जल के साथ अन्य तरह के अभिषेक के बीच शिवलिंग को स्नान कराने के बाद अभिषेक के लिए आवश्यक सभी सामग्री शिवलिंग पर अर्पण की जाती है। अंत में, भगवान को विशेष व्यंजन अर्पित किए जाते हैं और आरती की जाती है। अभिषेक से एकत्रित गंगा जल को भक्तों पर छिड़का जाता है और पीने के लिए भी दिया जाता है, यह पवित्र जल सभी पाप और बीमारियां को दूर कर देता हैं। रूद्राभिषेक की संपूर्ण प्रक्रिया में उपस्थित भक्तो को मन ही मन या धीरे धीरे रूद्राम या ‘ओम नम: शिवाय’ का जाप किया जाता है।
सम्पर्क सूत्र
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वास्तु दोष क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
वर्तमान समय में मनुष्य के जीवन में उसके घर, कार्यालय एवं व्यावसायिक प्रतिस्थान का उसके जीवन में विशेष महत्त्व है, लेकिन कई बार स्थान के आभाव या दिशाओ की जानकारी न होने के कारण कुछ निर्माण देखने में बहुत सुन्दर प्रतीत होते है लेकिन वह किसी किसी के लिए लाभकारी सिद्द नहीं होते है, इस प्रकार की परिस्थिति का सबसे बड़ा कारण निवास करने वाले व्यक्ति का ग्रहो का भवन के वास्तु के साथ सामंजस्य न हो पाना, मह्त्वपूर्ण कार्यो जैसे अनुष्ठान, भूमि पूजन, नींव खनन, कुआं खनन, शिलान्यास, द्वार स्थापन व गृह प्रवेश आदि अवसरों पर वास्तु देव पूजा का विधान है। घर के किसी भी भाग को तोड़ कर दोबारा बनाने से वास्तु भंग दोष लग जाता है।
कैसे जानेगे आपके स्थान पर वास्तुदोष है
आप अगर ऐसा महसूस कर रहे है की घर में अकारण ही क्लेश रहता है या फिर हर रोज कोई न कोई नुक्सान घर में होता रहता है, धन हानि व रोग आदि हो रहे हैं। किसी भी कार्य के सिरे चढ़ने में बहुत सारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। घर में मन नहीं लगता एक नकारात्मकता की मौजूदगी महसूस होती है। हम इस प्रतीकात्मक शक्तिओ को माने अथवा न माने लेकिन वास्तु की हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है और यह हर रोज हमारे जीवन को प्रभावित कर रहा होता है।
वास्तु पूजा या वास्तु शांति पूजन
वस्तुतः हम जब की किसी नए भवन में प्रवेश करते है तो भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश अन्य सभी देवी-देवताओं की पूजा करते है, लेकिन वह भवन हमारे लिए विशेष फलदायी हो उसके लिए इनके साथ-साथ वास्तु की पूजा भी जाती हैं। वास्तु पूजन से वातावरण में फैली हुई सभी बाधाओं एवं नकारत्मक शक्तिओ को खत्म किया जा सकता है अन्यथा जीवन जीने में बाधा उतपन्न हो सकती हैं। वास्तु शांति पूजन हमे और हमारे परिवार को अनिष्ट, अनहोनी, नुकसान और दुर्भाग्य से भी बचाता है।
कैसे होती है वास्तु शांति पूजन
आप किसी भी विद्वान पंडित से इसकी सम्पूर्ण जानकारी ले सकते है, वास्तुशास्त्र में कई प्रकार की पूजन विधियां व उपाय वास्तु शांति के लिये बताये गये हैं लेकिन यह पूजन मुख्यत दो प्रकार से होते है पहली उपयुक्त पूजा की विधि द्वारा और दूसरी सांकेतिक पूजा की विधि द्वारा।
उपयुक्त पूजा – जैसा की नाम से ही ज्ञात हो रहा है, की उपयुक्त पूजा सर्वथा उपयुक्त होती है, इसके लिये स्वस्तिवचन, गणपति स्मरण, संकल्प, श्री गणपति पूजन, कलश स्थापन, पूजन, पुनःवचन, अभिषेक, शोडेशमातेर का पूजन, वसोधेरा पूजन, औशेया मंत्रजाप, नांन्देशराद, योग्ने पूजन, क्षेत्रपाल पूजन, अग्ने सेथापन, नवग्रह स्थापन पूजन, वास्तु मंडला पूजल, स्थापन, ग्रह हवन, वास्तु देवता होम, पूर्णाहुति, त्रिसुत्रेवस्तेन, जलदुग्धारा, ध्वजा पताका स्थापन, गतिविधि, वास्तुपुरुष-प्रार्थना, दक्षिणासंकल्प, ब्राम्हण भोजन, उत्तर भोजन, अभिषेक, विसर्जन आदि प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है।
सांकेतिक पूजन – सांकेतिक पूजा तब की जाती है जब समय या धन का आभाव के कारण आप उपयुक्त पूजा कराने में असमर्थ हो या किसी पूर्व निर्माण को तोड़ कर पुनर्निर्माण कराया जाता है, इस पूजन में कुछ प्रमुख क्रियाएं ही संपन्न की जाती हैं जिन्हें नजरअंदाज न किया जा सके।
लेकिन वास्तु शांति के स्थायी उपाय के लिये विद्वान पंडित जी से पूरे विधि विधान के साथ व्यक्ति को सदैव उपयुक्त पूजा ही करवानी चाहिये।
सम्पर्क सूत्र
आचार्य निर्मल जी शास्त्री
90090-78032 , 87708-86923
पितृदोष क्या है? – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
जीवन और मृत्यु एक दूसरे के साथ साथ चलते है, मनुष्य के जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु का समय स्थान, परिस्थित सब नियत कर दिया जाता है, फिर भी कई बार सांसारिक मोह में फंसे हुए व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात उसका भली प्रकार से अंतिम संस्कार संपन्न ना किया जाए, या जीवित अवस्था में उसकी कोई इच्छा अधूरी रह गई हो तब भी उसकी मृत्यु के बाद उसकी आत्मा अपने घर और आगामी पीढ़ी के लोगों के बीच ही भटकती रहती है। ऐसे व्यक्तिओ के वंशजो को उनके मृत पूर्वजों की अतृप्त आत्मा ही कई बार भांति भांति के कष्ट देकर अपनी इच्छा पूरी करने के लिए दबाव डालती है और यह कष्ट पितृदोष के रूप में उनके वंशजो की कुंडली में झलकता है।
इसके अतिरिक्त अगर किसी व्यक्ति अपने हाथों से जाने या अनजाने अपनी पिता की हत्या करता है, उन्हें दुख पहुंचाता या फिर अपने बुजुर्गों का असम्मान करता है तो अगले जन्म में उसे पितृदोष का कष्ट झेलना पड़ता है
पितृ दोष के लक्षण
वैसे तो इस दोष के लक्षण भी सामान्य होते है, जिनको आप चाहे तो तर्क के आधार कुछ और ही सिद्ध कर सकते है, परन्तु वास्तव में जिसकी कुंडली में यह दोष होता है, वह जनता है की वह अपने लिए कितना प्रयास कर रहा है, फिर भी सफलता न मिलने का उसे कारण समझ नहीं आ रहा, इन समस्याओ में कुछ प्रमुख समस्याएं इस प्रकार से है, जैसे विवाह ना हो पाने की समस्या, विवाहित जीवन में कलह रहना, परीक्षा में बार-बार असफल होना, नशे का आदि हो जाना, नौकरी का ना लगना या छूट जाना, गर्भपात या गर्भधारण की समस्या, बच्चे की अकाल मृत्यु हो जाना या फिर मंदबुद्धि बच्चे का जन्म होना, निर्णय ना ले पाना, अत्याधिक क्रोधी होना
ज्योतिष विद्या में भगवान सूर्य को पिता का और मंगल को रक्त का कारक माना गया है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में ये दो महत्वपूर्ण ग्रह पाप भाव में होते हैं तो व्यक्ति की कुंडली में पितृदोष है ऐसा माना जाता है
पितृदोष के कुछ ज्योतिषीय कारण भी हैं, जिस व्यक्ति के लग्न और पंचम भाव में सूर्य, मंगल एवं शनि का होना और अष्टम या द्वादश भाव में बृहस्पति और राहु स्थित हो तो पितृदोष के कारण संतान होने में बाधा आती है।
अष्टमेश या द्वादशेश का संबंध सूर्य या ब्रहस्पति से हो तो व्यक्ति पितृदोष से पीड़ित होता है, इसके अलावा सूर्य, चंद्र और लग्नेश का राहु से संबंध होना भी पितृदोष दिखाता है। अगर व्यक्ति की कुंडली में राहु और केतु का संबंध पंचमेश के भाव या भावेश से हो तो पितृदोष की वजह से संतान नहीं हो पाती।
पितृ दोष निवारण पूजन
अगर आप यहाँ पर लिखी हुयी बातों को पढ़ रहे है तो आपको चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है, आप पंडित श्री रमा कांत जी को अपनी समस्या बताये और निराकरण प्राप्त करे, पंडित जी ने उज्जैन में एक लंबे समय से पितृ दोष शांति पूजन करवाकर अनेको पुत्रो को इस दोष से मुक्त करवा कर उनके पूर्वजो को प्रसन्न किया है।
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आचार्य निर्मल जी शास्त्री
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अर्क/कुंभ विवाह – Ujjain Poojan आचार्य निर्मल जी शास्त्री
अर्क विवाह क्या है?
पुरुषों के विवाह में आ रहे विलम्ब या अन्य दोषो को दूर करने के लिए किसी कन्या से विवाह से पूर्व उस पुरुष का विवाह सूर्य पुत्री जो की अर्क वृक्ष के रूप में विद्धमान है से करवा कर विवाह में आ रहे समस्त प्रकार के दोषो से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, इसी विवाह पद्द्ति को अर्क विवाह कहा जाता है।
अर्क विवाह किन पुरुषों के होने चाहिए
जिन पुरुषो की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र, सूर्य, सप्तमेष अथवा द्वादशेष, शनि से आक्रांत हों। अथवा मंगलदोष हो अर्थात वर की कुंडली में १,२,४,७,८,१२ इन भावों में मंगल हो तो यह वैवाहिक विलंब, बाधा एवं वैवाहिक सुखों में कमी करने वाला योग होता है, ऐसे पुरुषो के माता पिता या अन्य स्नेही सम्बन्धी जनको को उस वर का विवाह पूर्व अर्क विवाह करवाना चाहिए।
कुंभ विवाह
कन्या के विवाह में आ रहे विलम्ब या अन्य दोषो को दूर करने के लिए किसी पुरुष से विवाह से पूर्व उस कन्या का विवाह कुम्भ से करवाते है क्युकी कुम्ब में भगवान विष्णु विद्धमान है से करवा कर विवाह में आ रहे समस्त प्रकार के दोषो से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है, इसी विवाह पद्द्ति को कुंभ विवाह कहा जाता है।
कुम्भ विवाह किन कन्याओ का होना चाहिए
लड़की की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र, सूर्य, सप्तमेष अथवा द्वादशेष, शनि से आक्रांत हों। अथवा मंगलदोष हो अर्थात कन्या की कुंडली में १,२,४,७,८,१२ इन भावों में मंगल हो तो यह वैवाहिक विलंब, बाधा एवं वैवाहिक सुखों में कमी करने वाला योग होता है, ऐसी कन्याओ के माता पिता या अन्य स्नेही सम्बन्धी जनको को उस कन्या का विवाह पूर्व कुम्भ विवाह अवश्य करवाना चाहिए।
कुंभ एवं अर्क विवाह की आवश्यकता
मंगलदोष एक प्रमुख दोष माना जाता रहा है हमारे कुंडली के दोषों में, आजकलके शादी-ब्याह में इसकी प्रमुखता देखि जा रही है, ऐसा माना जाता रहा है की मांगलिक दोषयुक्त कुंडली का मिलान मांगलिक-दोषयुक्त कुंडली से ही बैठना चाहिए या ऐसे कहना चाहिए की मांगलिक वर की शादी मांगलिक वधु से होनी चाहिए पर ये कुछ मायनो में गलत है कई बार ऐसा करने से ये दोष दुगना हो जाता है जिसके फलस्वरूप वर-वधु का जीवन कष्टमय हो जाता है लेकिन अगर वर-वधु की आयु ३० वर्ष से अधिक हो या जिस स्थान पर वर या वधु का मंगल स्थित हो उसी स्थान पर दुसरे के कुंडली में शनि-राहु-केतु या सूर्य हो तो भी मंगल-दोष विचारनीय नहीं रह जाता अगर दूसरी कुंडली मंगल-दोषयुक्त न भी हो तो. या वर-वधु के गुण-मिलान में गुंणों की संख्या ३० से उपर आती है तो भी मंगल-दोष विचारनीय नहीं रह जाता, परन्तु अगर ये सब किसी की कुंडली में नहीं है तो नव दम्पति के सुखमय वैवाहिक जीवन के लिए कन्या एवं वर का कुंभ एवं अर्क विवाह करवाना अनिवार्य सा बन जाता है।
वर-वधु दोनों की कुंडलियों में मांगलिक- दोष हो तो ?
वर-वधु दोनों की कुण्डलियाँ मांगलिक- दोषयुक्त हो पर किसी एक का मंगल उ़च्च का और दुसरे का नीच का हो तो भी विवाह नहीं होना चाहिए या दोनों की कुण्डलियाँ मांगलिक- दोषयुक्त न हो पर किसी एक का मंगल 29 डिग्री से ० डिग्री के बीच का हो तो भी मंगल-दोष बहुत हद्द तक प्रभावहीन हो जाता है अतः विवाह के समय इन बातों को विचार में रख के हम आने वाले भविष्य को सुखमय बना सकते है, इस विषय में समस्त जानकारी के लिए हमें सम्पर्क करें, हमे आपके सुखमय जीवन के अवश्य प्रयास करेंगे।
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